हाँ , वहीं. ठीक उसी पेड़ के नीचे, नहीं ज़मीन पर नहीं, उस पेड़ की छाया के बीच...जड़ से ऊपर और पत्तों से नीचे, वहीँ कहीं रहती हैं आज कल मेरी आँखें. एक ज़माना था जब तुम रोज़ वहां से कम से कम दो बार तो गुज़रते थे। सुबह और शाम। मुझे याद है। अगर पेंट करना जानती तो ठीक उतार देती। तुम्हारे बदन की बनावट, तुम्हारी दूसरी दुनिया की हसीं, तुम्हारे आँखों की चमक, तुम्हारा भौहें उठाकर चिढाना, तुम्हारी शहद में डूबी हुई उँगलियाँ, यहाँ तक की तुम्हारी खुशबू भी। हूबहू 3डी बना देती, अगर बना पाती. हाँ, तो मेरी आँखें। मुहावरों की दुनिया में सुना था पलके बिछा कर इंतज़ार करना. पर आँखों को किसी किनारे सौंप आना? सरासर बेवकूफी है। मेरी दो बेवक़ूफ़ आँखें महीने भर से तुम्हें एक झलक देखने के लिए मर रहीं है। सुबह तो मानो एक उन्माद सा छा जाता है उनपर. तुम्हारे पूरे इलाके के चक्कर काटती हैं। ठीक उस मक्खी की तरह जो खिड़की से बहार निकलने का दमतोड़ पर व्यर्थ प्रयास करती हैं। तुम्हे देखे बिना थोडा और सूख जाती हैं. दिन की गर्मी में पेड़ की छाओं में चंद लम्हों के लिए सो भी ...