मैं क्या-क्या हो सकती थी
सुना है रोज़ सुबह उसे चाय की तलब सताती
है
सुना है एक डाइरी है,
जिसे वो काँख तले दबाये चलता है
लोग बताते हैं, वो कोने वाली गुमटी
से पान खाता है
और पुरनकी बजार वाला पेड़ा पसंद करता है
जाने कहाँ से बनी हैं वो ऐनकें
जिन्हें वो सोते वक़्त भी बगल में रखता
है
और वो गर्मी वाली खादी की बूशर्ट
जिसे हर तीसरे दिन पहनता है
एक लंच-बॉक्स भी लाता है
जिसे चाट-चाट कर खाता है
और वो सुनहरी ठेपी वाली कलम को
सीने से लगी पॉकेट में रखता है...
हाय किस्मत!
मैं क्या-क्या हो सकती थी-
वो प्याली, वो डाइरी,
वो पान, वो चश्मे,
वो कमीज़, वो बर्तन,
वो कलम, वो पेड़े...
bahut khoob !
ReplyDeleteलाजवाब सोच...
ReplyDeleteआप बहुत कुच हो सक्ति थी - वो प्याली, वो डाइरी, वो पान, वो चश्मे, वो कमीज़, वो बर्तन, वो कलम, वो पेड़े...
पर सोचो येह सब होति, तो भि अप्ने प्रिये के साथ चंद लम्हे हि बिता पाती. हम दुआ करते हैं, कि तुम वोह प्यार का एह्सास बनो, जो हर पल उस्के दिल मे रहे और सदेव उस्के साथ.
aapke muh mein ghee-shakkar!
Deleteभावनाओं की सुन्दर और सरल अभिव्यक्ति...............ख्वाइशों को करीब से छूती हुई पक्तियां...............बहुत खूब.................
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