स्वतंत्रता
क्यों मनाएं हम, साल दर साल, उसी जज़्बे और
जूनून से, स्वतंत्रता का दिवस. क्या है ऐसा इसमें जो मेरे जैसे नॉन-देशभक्त को भी झुरझुरी दे जाता है.
इतिहास साक्षी है कि हर विकास की नींव
स्वतंत्रता पर रखी गयी है, और स्वतंत्रता का आधार, मानव की स्वच्छंद सोच रही है.
जब हम मिल-जुट कर एक ऐसे दिवस को सलामी देते हैं, तो वास्तव में हम उस सोच, उस
संघर्ष को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जो आपकी और हमारी ख़ुशी और सृजनात्मकता का स्रोत
है.
वास्तव में स्वतंत्रता हमारे लिए प्रेरणा है.
ये उस सच का द्योतक है कि समय स्थाई नहीं रहता. कि हर ठहराव के बाद बहाव आता है,
जिसे धैर्य और कड़ी महनत से अपने मुताबिक़ ढाला जा सकता है. एक लम्बे अंतराल के बाद समय
करवट लेता है, और पुरानी धारणाओं को बेदखल कर जड़ से निकाल फेंकता है. ये धर्म और
रिवाज़ के संरक्षकों को पुनः याद दिलाता है कि समाज के हर व्यक्ति के कुछ मूल
अधिकार हैं, जिन्हें कोई सरकार दबा नहीं सकती, जिन्हें कोई राजा छीन नहीं सकता.
संघर्ष की किसी भी कहानी को यदि परत-दर-परत
उतार कर देखें, तो घटनाओं और रणनीतियों की तहों के नीचे एक विश्वव्यापी सोच पायी
जाती है. कहानी किसी भी देश की हो, आजादी के लिए इंसान की तलब एक-सी है. हर
संस्कृति में हुकूमत के खिलाफ विद्रोह के अध्याय मिलते हैं. वक़्त को शतरंज का शौक़
है या कायनात का नियम, सत्ता की भूख ने तानाशाहों को जन्म दिया है, और उन्मुक्तता
की चाह ने उन्हें मिटटी में मिलाया है. फ्रांस के जाने-माने चिन्तक रेने देकार्त
(Rene Descartes) की विश्व-प्रसिद्द उक्तियों में एक है – “मेरे होने का कारण मेरी
सोच है” (I think, therefore I
am).
तो क्या है यह सोच? क्यूँ इस सोच ने समय समय पर
सभ्यताओं का पासा पलट दिया है? कितना ज़रूरी है यह सोच हमारे जीवन की खुशहाली और
उत्तरोत्तर प्रगति के लिए? इस सोच की इष्टतम मात्रा क्या होनी चाहिए? इस सोच का
अमल किस रूप में करना चाहिए? कौन उठाएगा उस सोच की आवाज़? कौन बनेगा पहला योद्धा?
ये सोच उस अस्त्र का नाम है जो हर बदलाव के लिए
ज़िम्मेदार है. ये वो पंछी है जो प्रचलित आचरण पर सवाल खड़े करता है. जो कहता है, “मुझे
बंद करके न खानों में रख, परिंदा हूँ, ऊंची उड़ानों में रख”. जिसे अन्याय से
प्राकृतिक घृणा है. जिसे ठहराव से ख़ास लगाव नहीं, क्योंकि उसने देखा है कि बहती
धार ही स्वच्छ रहती हैं. जो हमें रूढ़ियों से निकलने पर विवश कर देता है, ताकि हम
आदत की बेड़ियों को तोड़ कर नवीनता के हार पहनें. ये पंछी हमें दूसरों की राय
सुनने-समझने पर मजबूर करता है, और यह साबित कर देता है कि सत्य एक बहु-आयामी विषय
है. जिसे सोने के पिंजरे में नहीं, वरन घाटियों की जोखिम में आनंद मिलता है. जो
जानता है कि खुले आसमान में उड़ना जितना उसका अधिकार है, उतना ही उसके पड़ोसी का भी.
जो शान्ति-प्रिय और सुसंगत है, लेकिन बेबस होने पर चोंच मार कर बाहर निकलना भी
जानता है. जो खुली आवाज़ में अपने मन के गीत गाने में नहीं चूकता, भले ही उससे कोई
राग मिलाये न मिलाये. समय गवाह है, कि जब-जब उसके बोल में सच्चाई और उसकी धुन में
सौहार्द रहा है, कुदरत के हर कण ने उसका साथ दिया है.
शहीद भगत सिंह, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के
एक अनमोल रत्न, जिन्होंने मात्र 23 साल कि उम्र में देश की आज़ादी के लिए प्राणों
की आहूति दे दी, उन्होंने कहा था कि अधिकार की याचना मत करो, उसे छीन लो (don’t ask for rights, take them). उनकी
आवाज़ ने लाखों युवाओं के दिल-ओ-दिमाग में क्रान्ति कि लौ जलाई थी, और एक ऐसे
आन्दोलन का आरंभ किया था जिसे कोई ताक़त थाम नहीं पायी थी.
वैसे तो हर मनुष्य इस पंछी को मन में लिए पैदा
होता है, पर डर, लालच, आलस, ईर्ष्या और अहंकार जैसी मानवीय दुर्बलताएं उसके पंख की
शक्ति को क्षीण कर देती हैं. और जहां ये पक्षी पंख फड़फड़ाना बन कर देता है, समाज का
पतन वहाँ से शुरू होता है. तो क्या उपाय है कि इस पक्षी को जीवित और जीवंत रखा
जाए? किसी देश की सरकार, या फिर कोई आम नागरिक, इसके लिए क्या कर सकता है?
सर्वप्रथम, अगर आप और हम पारदर्शिता से अपनी
जिम्मेदारियों का निष्पादन करें, और हमारी दिशा में उठते प्रश्नों का स्वागत करें,
तो सोच के उस पंछी का भरण पोषण करने में हम सहयोगी होंगे. इसके अतिरिक्त, अगर हम
खुद, अपने-अपने कार्यस्थल में हो रहे अनुचित कार्यों को नज़रंदाज़ न कर उसके समाधान
की योजना बनायें, और अन्य लोगों को भी जागरूक करें, तो वो नौबत ही नहीं आएगी जब
व्यवस्था के खिलाफ मुहीम छेड़नी पड़े. इतना ही नहीं, बल्कि हम सहनशीलता से उन
विचारों को भी आमंत्रित करें जो हमें ललकारती है, और सृजनात्मक बहस द्वारा, तर्क की
कसौटी पर सभी विचारों की जांच करें.
आईआईएमसी के एक प्रिय दुश्मन-cum-दोस्त ने अपने
ज्ञान के झोले से कभी ये मोती निकाल मुझे थमाया था:
“मन में जब दुविधा हो, खाएं कि न खाएं, तो कभी
मत खाओ.
और अगर दुविधा ये हो, कि कहें कि न कहें, तो
ज़रूर कहो”
एक बार फिर इस मंतर से मन को बांधें, अनकही
बातों को जुबां दें, दबी-छिपी हसरतों को जी लें, आप द्वारा बनाये परम्पराओं के
घरौंदे से बहार पैर रखें, और सचमुच स्वतंत्र जी लें.
स्वतंत्रता के महत्व एक बार फिरसे समझाने के लिए, धन्यवाद I इसे पढ़कर बहुत अच्छा लगा I
ReplyDeleteदोस्त, हम जो लिखते हैं, वो आप पहले से ही साध चुके हैं. पढ़ने और पसंद करने के लिए शुक्रिया.
Deleteअच्छा लिखा है सोनल। सहमत हूँ तुम्हारी बातों से। हमारी सामूहिक सोच अगर आज ऐसी नहीं है तो इसका कारण ये है कि बौद्धिक और भौतिक स्तर पर समाज में आज भी व्यापक असमानता है। गरीबी व अशिक्षा का अंधकार अगर हम अपने नागरिकों के सामने से कुछ हद तक भी हटा पाएँ तब तो वो सही अर्थों में स्वाधीनता के मूल्य और पंख फड़फड़ाकर खुले आकाश में विचरण करने के आनंद को समझ पाएँगे। अपनी सोच प्रगतिशील बना पाएँगे।
ReplyDeleteजैसा तुमने लिखा है कि अपने स्तर पर जो भी दायित्व हमें देश व समाज ने दिया है उसका अगर हम सब निर्वहन करें तो इस सोच को संपूर्ण देश की सोच में परिवर्तित किया जा सकता है।
कमेंट पढ़ कर लगा कि लेख लिखना सार्थक रहा.
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