परहित = परमानन्द
युगों युगों से मानव सभ्यता
की कोशिश रही है, उस रहस्य का पता लगाना, जिसे आत्मसात कर लेने से मनुष्य एक ऐसी
मनोस्थिति में खुद को पाता है, जहां आनंद ही आनंद है. जहाँ न भविष्य की चिंता, न
भूत का पश्चाताप, न समाज का भय, न स्वीकृति की आवश्यकता. बस, एकल सुख.
कर्म ही मेरी पूजा रही. अध्ययन को तपस्या माना. सीखने और जानने की लालसा को प्रेरणा का स्रोत बनाया. पेड़ों के पत्तों से छनती धूप में सृष्टि का जादू देखा. इंसानों के सौहार्द में सरस्वती की वीणा सुनाई दी. पंछियों की चहचहाहट में अप्सराओं की हंसी. कुछ मनुष्य तो साक्षात भगवान के अवतार नज़र आये.
लेकिन इन सब से परे - प्रकृति,
जीव, मित्रता, कर्म, प्रेम, करुणा, साहित्य, नृत्य, संगीत, अभिव्यक्ति, ज्ञान,
सम्बन्ध – अगर कोई एक ऐसी अनुभूति है, जो सबसे अधिक सुखमय है, तो वह है, परहित की.
हाल ही में मुझे कुछ ऐसे
कामों को मुकम्मल करने का सौभाग्य मिला, जिससे हज़ारों जिंदगियों को मदद मिलेगी. प्रत्यक्ष
रूप से इसमें मुझे कोई लाभ नहीं हुआ, मेरा इरादा वो था भी नहीं, लेकिन एक बार फिर
जीवन ने अपने ढंग से साबित कर दिया, कि सच की जीत, और झूठ की हार, सनातन सत्य है. इस
यात्रा में जिन लोगों ने मेरी सहायता की, मैं उनकी शुक्रगुज़ार हूँ. जिन लोगों ने
जाने-अनजाने में मुझे रोकने की कोशिश की, मैं उनका नमन करती हूँ, और अपने अंतर्मन
को प्रणाम, क्यूंकि दोनों ने मिलकर मुझे यह सिखाया, कि अगर कभी भी, किसी भी हालत
में, आप दुविधा में हों, तो सिर्फ और सिर्फ, अपने मन की करें.
हममें से कुछ लोग होते हैं,
और जो हैं वो मेरी इस बात को पूरी तरह से समझ रहे होंगे, जिन्होंने निःस्वार्थ
सेवा को, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, अपना लक्ष्य बनाया है. ज़ाहिर है, ऐसे लोग
मेरे परम-मित्र हैं. एक अजीब सी, असीम सी खुशी है, दूसरे की मदद करने में. दूसरा
मतलब अपना और परा, दोनों.
स्पष्ट कर दूं, कि परहित
यानी वो नहीं, जो आप हमसे कराना चाहते हैं. परहित मतलब वो, जो हमें करने योग्य
लगता है. सही कारणों के लिए. हमारे मुताबिक़ सही. हमारी परिभाषाओं के अनुसार. Ayn Rand, अंग्रेज़ी की मेरी
प्रिय लेखिका ने कहा था, “To say I
love you to someone, you have to say the I first.” हम वो हम हैं, जिसे आप प्रभावित ज़रूर कर सकते हैं, लेकिन जिसपर आप अपनी
मिल्कियत नहीं जमा सकते.
हमें मंदिरों की घंटियों
में नहीं, रिश्तों के आडम्बर में नहीं, पद की पुष्टि में नहीं, साज-सामान में
नहीं, घूमने-फिरने में नहीं, Mall-shopping में नहीं, कृत्रिम अभिनय में
नहीं...बल्कि किसी और को सशक्त करने में सबसे अधिक मज़ा आता है. हमारा सबसे बड़ा
संतोष यह नहीं कि हम फलाना की मालकिन हैं या फलाना की संबंधी. हमारा संतोष इसमें
है, कि हम क्या हैं. कि हमारे होने से यह धरती कैसे बहतर है.
परहित हमारा परमानन्द है.
wow!!absolutely brilliant, valid piece!!!this is the essence of the 'I' in you, so no surprises there..
ReplyDeletekudos!!!! :)
It is because you resonate, my friend.
Deleteतुम्हारी ये प्रवृति औरों को यूँ ही प्रेरित करती रहे यही मनोकामना है।
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