मोह मोह के धागे
जाने कैसे घूम फिर कर हर बात, हर रात, तुम्हीं पर आ कर टिक जाती है.
तुम्हारे छोटे चड्डे के उधड़ते हुए धागों पर.
तुम्हारे बौराए हुए घुंघराले बालों पर.
तुम्हारी कविता जैसी आँखों-पलकों पर.
तुम्हारे चंचल भाव-भंगिमा पर.
तुम्हारे माँ जैसे स्वभाव पर .
तुम्हारी कल-कल बहती हंसी पर.
तुम्हारी इतराती-बलखाती अदाओं पर.
तुम्हारे सुकूनदेह स्पर्श पर.
तुम्हारे गालों के भंवर पर.
अनुभूति कुछ भी हो, दिनचर्या जैसी भी बीते. अहसास जैसा भी हो, माध्यम जो भी रहे. अभिव्यक्ति कुछ भी हो. निष्कर्ष तुम्हीं तक लाता है.
जब हर दिशा, दशा, मंज़र, रस्ता, गली, चौराहा एक ही मंज़िल दर्शाये - तो जान लेना चाहिए के वो भीतर तक घर कर चुका है. कि हम उसके उतने हो चुके हैं कि उसके बिना अपना पूर्ण परिचय देना कठिन पाते हैं. अपना पूर्ण होना भी. पूर्ण जीना भी.
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