205 के भैया
मटमैले रंग की सलवार कमीज पहने, छीजी सी चुन्नी ओढ़े, अधेड़ उम्र की मुस्कान कुल छे घर करती थी। गठा हुआ शरीर, टनकती आवाज़ और तेज़ चाल - मुस्कान
दिल्ली की दबंग कामवालियों से अलग न थी। उसने बहुत पहले जान लिया था कि शहर के अमीर गिद्ध की भांति होते हैं - कमज़ोर को नोंच खाते हैं।
वैसे तो काम उसने झाड़ू पोंछे से शुरू किया था, पर पैसे और हुनर बढ़ने के साथ उसने पेशे में भी तरक्की की थी। अब वो शर्तें साफ़ रखती थी - कपड़े मशीन में ही धोएगी। बर्तन गर्म पानी से ही साफ़ करेगी। खाने में एक सब्ज़ी और एक दाल से बढ़कर कुछ नहीं बनाएगी। महीने में दो छुट्टी करेगी। ये सब उसके अनुभव का निचोड़ था। सालों पहले, कई बार उसने कोशिश की थी कि बहुत अच्छा काम करके, किसी और के परिवार को अपना परिवार मान के, मैडम लोगों का दिल जीत ले। तब हाथ-पैर भी दबाये थे। सराहना में दो-चार शब्द हाथ लगे और दस-बारह पुरानी साड़ियां।
तंगदिल लोगों को खुश करने की हज़ार कोशिशों के बाद वो समझ गयी थी की मालिक लोगों का लालच वो अंधा कुआं है जिसमें कूद भी जाओ तो मालिक खुश न होगा। शायद यह भी कह दे - धत लड़की, सर के बल क्यों नहीं कूदी?
उसके कान तरस गए, लेकिन अपनी सब्ज़ी की तारीफ जी भर के नहीं सुनी। बर्तन चमकते रहे लेकिन बच्चे के बीमार होने पर जब तीसरी छुट्टी ली तो पैसे काट लिए। कभी कहीं सोफे के पीछे गन्दगी निकली तो कामचोर की उपाधि प्राप्त हुई। दूध उफन कर गिर गया तो आधे घंटे का लेक्चर नसीब हुआ। कभी कहीं कुछ गम गया तो 'ये लोग ऐसे ही होते हैं' सी फुसफुसाहट सुनाई पड़ी। खाने में कुछ कम ज़्यादा हुआ तो कामवालियों की जात का हवाला दिया गया। कुछ अच्छा बना तो पूरा क्रेडिट लूट लिया गया। कामकाजी जीवन में उसे कभी स्नेह मिला हो, उसे याद नहीं। यों कुछ घरों के बच्चे जब 'आंटी' कह पुकारते तब उसे अच्छा ज़रूर लगता था।
समय के साथ मुस्कान ने (विमुख होकर) मान ही लिया कि उसकी जात इंसान से पहले नौकर की है। फिर क्या था - वो उसको वैसे ही निभाने लगी जैसे मैडम लोग उसे साबित करने में जुड़ी रहतीं।
हाल ही में एक मैडम ने उसे काम से निकाला था। आम बात थी। सोसाइटी के गार्ड ने जब बताया कि 205
का घर खाली है पर उसमें एक 'बैचलर सर' रहते हैं, तब मुस्कान को पल भर का संकोच हुआ। फिर 'मरद कौन सा देखने आ रहा है' के ख्याल ने मुस्कान को हौसला दिया।
तकरीबन 40-50 साल के आदमी ने दरवाज़ा खोला। माध्यम डील-डॉल, काले-सफेद से बाल, कॉलेज टीचर जैसा शांत, चश्मेवाला चेहरा।
"एक आदमी का खाना दो-टाइम बराबर बनाना है। बनाओगी?"
न कोई सवाल, न पगार की बात, न परिचाय की मांग, न निजी पूछताछ। बस एक सीधा सादा सवाल। जाने क्या था उन भैया में कि मुस्कान ने झट से हाँ कह दिया। फोन नंबर के आदान प्रदान के बाद भैया ने बाय कहके विदा किया।
प्रतिदिन मुस्कान निश्चित समय पर आती। भैया उससे पूछकर सब्ज़ी लाते - विचित्र बात थी - पर आज तक किसी ने उससे ये नहीं पूछा था कि उससे क्या बनाना अच्छा लगता है। जब भैया ने पूछा तो अरसों बाद मुस्कान ने पेशे को प्यार से देखा। खाने के निर्णय वो ले सकती है, इस सोच ने उसे गर्वान्वित महसूस कराया।
भैया खाना खाते ही प्रतिक्रिया भी देते। सब्ज़ी अच्छी लगती तो आनंदित चेहरे से प्रशंसा करते। नहीं अच्छी लगती तो 'आज मज़ा थोड़ा कम आया', बस इतना कहके रुक जाते। भैया किसी कारणवश खाना ख़त्म नहीं कर पाते तो उसे 'सॉरी' बोलते। बासी खाना खाने को तैयार रहते, और उन दिनों मुस्कान से बिना काम लिए उसे चले जाने देते। इतने सीधे भैया!
ऐसे भैया की सुहूलियत मुस्कान को अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी लगने लगी। साफ़-सफाई, बर्तन, खाना , कपड़े… मुस्कान ने सब कामों पर स्वामित्व बनाया। हमेशा मंद मंद से मुस्कुराते, पियानो, किताब, या फ़ोन में खोये हुए भैया हर काम पे 'थैंक यू' बोलते। नियमित पगार के साथ होली-दिवाली में मिठाई और बख्शीश भी देते। ये तक न जताते कि वो कितनी सौभाग्यशाली है कि उसे उन जैसे मालिक मिले।
भैया के सानिध्य में उसे ऊंच -नीच का अहसास न रहता। भैया उसकी और अपने चाय की बर्तन एक रखते। उसके बाथरूम प्रयोग पर ध्यान भी नहीं देते। वो साथ टीवी देखने लगती तो भी उनका चेहरा समान रहता। अन्य कामवालियों का बखान उसके सामने नहीं करते। हमेशा उसका स्वागत एक हलकी मुस्कान से करते। बात बात पर अपनी या अपने घरवालों की तारीफ करके उसका माथा भी नहीं चाटते। उल्टा, मुस्कान
से उसके बच्चों के बारे में पूछते। उसके दोनों बच्चों के नाम भी याद थे उन्हें। घर का काम उसका काम है, उसकी जात नहीं, ये अहसास उसे वापस आने लगा था।
आज
एक
साल
बाद, 205 के भैया घर छोड़कर जा रहे हैं। बिन मांगे मुस्कान को एक महीने का एडवांस दे दिया है।
चुन्नी में आंसू पोछती मुस्कान बक्से में सामान के साथ इंसानियत से अपने लघु परिचय को भी समेट रही है। दहलीज़ से बाहर पाँव रखते ही वो वापस उसी पुरानी दुनिया में लुप्त हो जाती है - जो वैसी है
जैसे
भैया
नहीं
थे
- निष्ठुर और स्वार्थी।
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