दो जोड़ी कपड़ा


हमारे जीवन में एक ऐसा भी समय आया जब दुकानें बंद हुईं। एक दो दिन के लिए नहीं, बल्कि लम्बे समय के लिए। और जैसा की ऐसे समय में अक्सर होता है, लोगों को महसूस हुआ कि हमें वास्तव में दो जोड़ी कपड़े से अधिक सामान की ज़रुरत ही नहीं थी।  

ये वो लोग थे जिनकी मम्मी मेरी वाली से अलग रही होंगी।

पूरा बचपन अम्मा को घर में दो चार कपड़े ही पहनते देख बीता। ये उसकी ही देन है कि अपना खुद का घरेलू जीवन दो-चार कपड़ों में ही व्यतीत हुआ, और संभवतः ऐसा ही होता रहेगा। माँ और पापा, दोनों की राय इस विषय में एक सामान रही।  स्नानघर से एक जोड़ी पहन कर बाहर निकलते तो हाथ में धुली हुई दूसरी जोड़ी रहती।  एक दिन में धुले हुए कपड़े सूख जाते, और cloth management का यह क्रम तब तक चलता जब तक कपड़े छीज नहीं जाते। सर्दी के दिनों में, आसानी से कपड़ों के न सूखने की वजह से, पोशाक की संख्या में 1-2 का इजाफा दर्ज़ होता। कई बार तो (ख़ास कर के पापा को) कपड़ो से ऐसा लगाव हो जाता कि हमें अपने कर कमलों से उन वस्त्रों को डस्टिंग के कपड़ों में बदलने का सुख प्राप्त होता। अपने घरवालों की पुरानी बनयान, कमीज, सूट, सलवार, मैक्सी और निक्कर के चीथड़ों से घर की सफाई करते समय एक अलग ही आत्मीयता महसूस होती। हमें तो कपड़े खरीदते समय ही ये समझ में आ जाता कि अमुक प्रकार के कपड़ों से अच्छी डस्टिंग होगी या नहीं। शायद यही कारण है कि आज तक मैं और मेरा पूरा परिवार सूती ही पसंद करते हैं! कपड़े की जीवन काल की इतनी उम्दा प्लानिंग मैंने शायद ही कहीं और देखी हो। जब तक फैब्रिक में दम होता, माँ उसके इस्तेमाल के नायाब विकल्प ढूंढ लेती।  

घर के नियम सरल और सहज थे - बच्चे बूढ़ों के लिए एक सामान थे। घर पहनने के कपड़े हर कोई उतने ही रखे जितने में कट जाए। हर व्यक्ति रोज़ नहाते समय अपने कपड़ों को धो दे ताकि वाशिंग मशीन जैसे लंद फंद उपकरणों का कम से कम प्रयोग हो। अतिरिक्त सामान न लाया जाए, न रखा जाए। इन नियमों के अपवाद तभी लागू हों, जब व्यक्ति घर से बाहर पैर रख रहा है।

अब तक इस आराम-देह जीवन से परीख चुके हम बच्चों ने पूछा, 'ये अपवाद भी क्यों?'

'क्यूंकि भेखे भीख मिलेला। और क्यूंकि हर स्थान की एक गरिमा होती है, जिसे अपने आचरण से निभाना होता है, और कपड़े आचरण का हिस्सा हैं। काम के कपड़े भले ही कम लो, पर सबसे उम्दा क्वालिटी के ही लो।'

'तो क्या घर में किसी आचरण की ज़रुरत नहीं? घर भी तो एक स्थान है।'

'घर-वालों के बीच बैठ के भी ये सोचना पड़े कि कपड़े कैसे पहने हैं तो वो घर नहीं रह जाता, होटल बन जाता है । एक घर ही ऐसा स्थान है जिसमें हमें कुछ बन कर रहनी के ज़रुरत नहीं पड़ती।'

फलस्वरूप ये हुआ कि घर के लोग केवल काम पर जाने के लिए ही तैयार होते। फलस्वरुप ये भी हुआ कि घर आने के बाद भी, जब तक हम वही 2-3 पुराने और सादे कपड़ों में न आ जाते, घर जैसी बात महसूस ही नहीं होती। 

घर के अंदर भी घर होता है, और वो माँ की सादगी में डूबा होता है। एक ऐसी सादगी, जिसे महामारी के समय अन्य लोग अपनाने को विवश हो जाते हैं। और मेरे जैसे सौभाग्यशाली लोग, विरासत में पाते हैं।  

'जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर आसान रहेगा।' गोपालदास नीरज की ये पंक्तियाँ शायद माँ ने पढ़ी न हों, पर साकार अवश्य कर दीं हैं.   


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