गोल गुम्बद और गुफ्तगू

 


कॉलेज के दिनों की तरह दोनों गोल गुम्बद के सामने बेंच पर बैठे थे। जब भी मिलते, यहीं मिलते। एक तरफ मेथोडिस्ट चर्च और दूसरी तरफ मुग़लई गुम्बद उन्हें अलग अलग टाइम ज़ोन में एक साथ होने का आभास देता दोनों दिल्ली वासी होकर भी दिल्ली में ही पले बढ़े थे। इस शहर में इतिहास छितराया हुआ है, वो कहती। बस क्रम जानने की देर है, कहानी आप ही बन जाएगी।

बरसों बाद वापस उसी गुलमोहर के नीचे बैठने में एक अजीब सा सुकून है, नहीं? वो गुलमोहर के आधे पीले आधे हरे पत्तों में जाने क्या ढूंढती हुई बोली।

सुकून तुझसे फिर से मिलने में है यू फूल, उसने उसका सर थपथपाते हुए बोला। जैसे वो कोई बच्ची हो। पूरी दुनिया में एक यही लड़की है जिसने मुझे ये सिखाया है कि मैं प्यार कैसे करता हूँ, उसने मन ही मन सोचा।

बच्ची हंसी। आँखों की क्रो लाइन्स उभर आईं। दिल्ली के जाड़ों में उसका उज्जवल चेहरा और ठंढ से लाल पड़े गाल जैसे और बेबाक हो उठे थे। कुछ ही बरस में बाल और घुंघराले और सफ़ेद हो गए थे।

तूने हर उम्र में ऐसे हे सुन्दर दिखने का चैलेंज लिया है क्या? प्रश्न में उपहास कम, सम्मोहन अधिक था।

तूने ज़िंदगी भर मेरे चक्कर में बैचलर रहने का प्रण लिया है क्या? उत्तर सपाट था। दोनों ठहाके मार हंस पड़े। माहौल थोड़ा नर्म हुआ

जब मिलने आना ही था तो थोड़ी धूप ले आता भरी दुपहर में इतना कोहरा करा दिया है…लग रहा है बैठे बैठे सील जायेंगे

मैं तो कह ही रहा था घर पर मिलते हैं, तूने ही वापस यहां आने की ज़िद की।

मैंने कहा , यहाँ आने में एक सुकून है। निश्चितता का आभास इस अस्थायी जीवन में कुछ तो चीज़े हैं जो नहीं बदलेंगी – वो आश्वासन समय समय की बात है, मैं भी ऐसा आश्वाशन ढूंढूंगी, मुझे नहीं पता था।

वही उदासीन टेढ़ी हंसी। वो अंदर तक कसमसा गया। शायद वो साफ़ रो देती तो वो कोई सहानुभूति दे पाता। क्या कुछ नहीं खोया उसने कोरोना में…नौकरी, पति, किराए का घर। और इतना कुछ होने के बाद भी उसके स्वर में यातना है कातरता बस एक मूक स्वीकृति। वो दर्द महसूस करके प्रकट कर देती तो शायद हल्की हो जाती। कम से कम वो हल्का हो जाता। शायद इसलिए शोक ‘मनाया’ जाता है।

बाहर का कोहरा अंदर भर गया। दोनों की आंखें डबडबा गयीं। शब्द गुम्बद के गूंजते सन्नाटे में लुप्त हो गए

एक लम्बी चुप्पी के बाद उसने हिम्मत की - फिर क्या सोचा है?

सोच रही हूँ ये क्षण जीवन में एक अवसर लेकर आते हैं। अपनी और अपने निजी रिश्तों की चिंताओं से ऊपर उठने का एक बहाना। कभी तो इंसान अपने काम आना बंद करे और औरों के काम आये। लगता है वो समय गया है

इसमें भी तुझे अवसर दिखता है? फिर वही सोशलिस्ट एजेंडा?

तुम्हें खीज मचती है तो विषय बदल देते हैं।

बात विषय बदलने की नहीं, तुम्हारे मेन्टल हेल्थ की है। कोई थेरेपी वगैरह क्यों नहीं लेती?

इस लाइन का असर गज़ब हुआ। पहले तो बच्ची ने चेहरा घुमाकर उसे अच्छे से देखा… और फिर ऐसे हंसी जैसे उसने कोई चुटकुला कसा हो।

इसमें हंसने की क्या बात है? वो झन्नाया। आजकल पूरे संसार में मेन्टल हेल्थ अवेयरनेस की बातें हो रही हैं। इसमें शर्म कैसी?

तो मैं कहाँ शर्मा रही हूँ?

तो मज़ाक में क्यों उड़ा रही हो?

क्यूंकि ये मेन्टल हेल्थ वाली बीमारी अमीरों की अन्य बीमारियों की तरह है। इन सब की उपज का कारण एक है - प्रॉब्लम ऑफ़ प्लेंटी।

एक प्रश्नवाचक मुद्रा में वो उसे देखता रहा।

नज़र घुमाकर देखो समाज के उस तबके को जो मेन्टल हेल्थ की बात करते हैं। क्या उन्होंने सड़क पर एक भी रात बिताई है? क्या वो सोचने को मजबूर हैं कि उनका अगला निवाला कहाँ से आएगा? क्या उनके खेत की फसल बारिश पर निर्भर है? क्या वे कोई ऐसे बीमारी से जूझ रहे हैं जिसका हल नहीं? क्या उन्हें भी नशे में धुत कर भीख मांगने पर मजबूर किया जा रहा है? क्या वो अशिक्षित माता पता के संतान हैं और उनके बच्चे भी किसी की बूट पोलिश करके अपनी आजीविका निकाल रहे हैं? क्या इस समय उनके परिवार का कोई जन दिल्ली की शीतलहरी का शिकार होने को है? नहीं ना? तो जब ज़िंदगी में दुःख के वैध कारण हैं ही नहीं, और रिरियाना भी मन बहलाने के लिए ज़रूरी है, तो इंसान दुःख के कारण गढ़ लेता है। और फिर उसी में लोटता रहता है। और अपने जैसे दस और ढूंढ लेता है ताकि सब साथ लोटें। बस, मन बहल जाता है। किसी बड़े मुद्दे का हल ढूंढने का संतोष अलग मिलता है ये है प्रॉब्लम ऑफ़ प्लेंटी।

दुःख का भी कोई माप होता है क्या? हो सकता है किसी के लिए एक छोटा दुःख भी बहुत बड़ा दुःख है।

सही बात है। सबके दुःख अपने लिए भारी हैं। जैसे मेरे लिए कोरोना के चलते नौकरी जाना। जैसे अम्बानी के एक जेट प्लेन में आग लग जाना। जैसे तुझे कायदे की बीवी मिल पाना। जैसे…

हाँ हाँ मैं समझ गया। तो आई बात मेन्टल हेल्थ पे?

नहीं आई। अगर ऐसे दुःख, जिनका घोर अन्याय और असह्य पीड़ा से सम्बन्ध नहीं है, वो असल में दुःख हैं ही नहीं। वो मात्र संघर्ष हैं। और संघर्ष तो  जीवन का अभिन्न अंग हैं।  इन्हें दुःख का नाम देकर सहानुभूति मांगना दयनीय है   ऐसे दुखों में घिरकर अपना मानसिक संतुलन खो बैठना, या डिप्रेशन में चले जाना, कायरता है। संघर्ष से जूझना तो मानव जीवन का मूल सिद्धांत है हमारा कर्त्तव्य है। हमारे समस्त ज्ञान का जड़ है लेकिन आलस भी बड़ी चीज़ है। ज़िम्मेदारी झाड़ना ज़िम्मेदारी निभाने से ज़्यादा आसान है, इसलिए हम पॉपुलर कल्चर में मेन्टल हेल्थ का हऊआ बनाकर इस ज़िम्मेदारी से भागने का समर्थन ढूंढते हैं। और तुम्हारे जैसे भतेर समर्थक मिल भी जाते हैं।

कटु सत्य का कटाक्ष दोस्तों के बीच हंसी की फुहार बनकर गिरा। हँसते हँसते उन्होंने एक हाई फाइव किया।

बात तो तेरी सही है अपने भावभंगिमा में हार की झेंप भरी मुस्कान लिए उसने कहा। लेकिन बात जब अपने लाइफ पार्टनर के गुज़र जाने की हो तो

एक लम्बी आह भरकर लड़की ने वापस गुलमोहर के पत्तों पर टकटकी लगाई मद्धम स्वर में जैसे वो अपने आप से ही बोली - जीवन एक रिश्ते से बढ़कर है। मृत्यु और जन्म से भी बढ़कर। शादी ब्याह बाल बच्चे, सबसे परे। मुझे वो लक्ष्य ढूंढना है, और उसे प्राप्त करना है। बस। बाकी सब समय की बर्बादी है।

और अगर तुम्हारे इस लक्ष्य में मैं तुम्हारा साथी बनना चाहूँ तो?

ये लक्ष्य व्यक्तिगत है दोस्त, और एकांत में पनपता है।

तुम संन्यास लेने की सोच रही हो क्या?

वो हंसी। बिलकुल नहीं। मैं तो बस अपनी आत्मा के निकट पहुँचने का इंतज़ाम कर रही हूँ।

मैं भी तो वही कर रहा हूँ। इतने सालों से। बस हमारे रास्ते अलग हैं। और मेरे वाला तुमसे होकर गुज़रता है।

 

फिर वही मोड़।

 

लेकिन ये मेरे जीवन का दुःख नहीं, संघर्ष है। और सच कहूं तो मीठा संघर्ष है। अब ठंढ में जान लेगी या चाय पिलाएगी?

चुहल करते दो पुराने दोस्त, दिल्ली के कोहरे को भेदते हुए, एक कप में धूप को कैद करने निकल गए। 

 

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