कभी कभी कुछ

कभी नंगे पाँव
गीली घास पर चल लेती हूँ
कभी बालों को बिखेर
भरी बरसात में टहल लेती हूँ
कभी चाँदनी रात में
छत पे बैठे कुछ गा लेती हूँ
कभी राह चलते
अनजाने बच्चों में बाहें उलझा लेती हूँ
कभी बाथरूम के अन्दर
बिलख-बिलख कर रो लेती हूँ
कभी अपनी माँ के साथ
चिपककर सो लेती हूँ
कभी किसी किताब को
चंद घंटों में पढ़ लेती हूँ
कभी कोरे कागज़ पर
सपनों का जहां गढ़ लेती हूँ
कभी दोस्तों के साथ
ठहाकी हंसी हंस लेती हूँ
कभी बहते घावों पर
बेजान पट्टी कस लेती हूँ

पर चाहे कुछ भी कर लूं मैं
तू याद हर वक़्त आता है
बहानों की लगाम छुडाकर दिल
तेरे पीछे ही जाता है

Comments

  1. पर चाहे कुछ भी कर लूं मैं
    तू याद हर वक़्त आता है
    बहानों की लगाम छुडाकर दिल
    तेरे पीछे ही जाता है

    ... कभी ऐसा भी हो जाता है कि जीवन की बागडोर यादें अपने हाथों में थाम लेती हैं.

    आपकी इस रचना की बुनावट में खोया-खोया जाने किन किन कविताओं के पार भी गुजरता गया.

    मोमिन का मशहूर शे’र, “तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता” याद आया, उन्हीं की गज़ल “तुम्हें याद हो के ना याद हो” भी याद आ गई.

    याद आया अहमद फ़राज़ का शे’र:
    करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
    ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे.

    बशीर बद्र जाने क्यों यह लाईन ले कर आ गए –
    “तुम्हारा क्या तुम तो गज़ल कह कर अपनी आग बुझा लोगे
    उसके जी से जाकर पूछो जो पत्थर –सी चुप रहती है”

    मेरी एक कविता मात्र किन्हीं स्थितियों भर में किसी के याद आने की बात करती है (शायद पढी़ हो आपने, वैसे नेट पर www.hindisahityamanch.com/2010/02/blog-post_09.html पर है) -- वह याद आई कि आपकी इस कविता को पढ़ने के बाद पढ़ी जाए तो समझ आए कि कितनी उथली-छिछली अभिव्यक्ति है वहाँ.

    आपकी रचनाएँ उन स्थलों को स्पर्श करती हैं जहाँ कविता ही पहुँच सकती है.
    सुन्दर रचना हेतु बधाई.

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  2. जब भी ये सर कहीं झुका, तुम याद आई हो ...जब भी दिखा निश्छल कोई शिशु, तुम याद आई हो...कभी औचक जो मुस्कराया, तुम याद आई हो....

    सुभानअल्लाह! याद को जिस खूबसूरती से आपने अभिव्यक्त किया है, याद तो सदा आपकी मेहरबान रहेगी। भावनाओं की सूक्ष्मता को ज़ाहिर करने की यह कला...वाह!

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  3. May this feel and expression be with you forever.

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