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ज़िद्दी, पर मेरा

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घात पर घात सहता जाता चुपचाप खामोश बहता जाता समझौते भी करता अजीब से ठाना हो बैर जैसे नसीब से वक़्त के थपेड़े मुंह पर खाता जिद् से फिर भी बाज़ न आता अमावस की रातों में सहलाता अपने चोट हैरानी ज़मानों की उसके सदा हँसते होठ बातों में शहद है, ठहाकों में किलकारी झलक भर ही दिखे है, टीसों वाली चिंगारी जाने कहाँ और कितना, बहता इसका पानी यातना में डूबी जैसे, इक मीठी-सी कहानी दफन हैं सीने में गूंजते सन्नाटे भेदती हवाओं में ठंढी रात फ़कीर काटे लगाये बैठा गले है ज़िद को, ये अक्खड़ सा दिल सुनता नहीं मशवरे, बस ताकता मंज़िल घात पर घात सहता जाता चुपचाप खामोश बहता जाता...