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गोल गुम्बद और गुफ्तगू

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  कॉलेज के दिनों की तरह दोनों गोल गुम्बद के सामने बेंच पर बैठे थे। जब भी मिलते , यहीं मिलते। एक तरफ मेथोडिस्ट चर्च और दूसरी तरफ मुग़लई गुम्बद उन्हें अलग अलग टाइम ज़ोन में एक साथ होने का आभास देता । दोनों दिल्ली वासी न होकर भी दिल्ली में ही पले बढ़े थे। इस शहर में इतिहास छितराया हुआ है , वो कहती। बस क्रम जानने की देर है , कहानी आप ही बन जाएगी। बरसों बाद वापस उसी गुलमोहर के नीचे बैठने में एक अजीब सा सुकून है , नहीं ? वो गुलमोहर के आधे पीले आधे हरे पत्तों में जाने क्या ढूंढती हुई बोली। सुकून तुझसे फिर से मिलने में है यू फूल , उसने उसका सर थपथपाते हुए बोला। जैसे वो कोई बच्ची हो। पूरी दुनिया में एक यही लड़की है जिसने मुझे ये सिखाया है कि मैं प्यार कैसे करता हूँ , उसने मन ही मन सोचा। बच्ची हंसी। आँखों की क्रो लाइन्स उभर आईं। दिल्ली के जाड़ों में उसका उज्जवल चेहरा और ठंढ से लाल पड़े गाल जैसे और बेबाक हो उठे थे। कुछ ही बरस मे...

दो जोड़ी कपड़ा

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हमारे जीवन में एक ऐसा भी समय आया जब दुकानें बंद हुईं। एक दो दिन के लिए नहीं, बल्कि लम्बे समय के लिए। और जैसा की ऐसे समय में अक्सर होता है, लोगों को महसूस हुआ कि हमें वास्तव में दो जोड़ी कपड़े से अधिक सामान की ज़रुरत ही नहीं थी।   ये वो लोग थे जिनकी मम्मी मेरी वाली से अलग रही होंगी। पूरा बचपन अम्मा को घर में दो चार कपड़े ही पहनते देख बीता। ये उसकी ही देन है कि अपना खुद का घरेलू जीवन दो-चार कपड़ों में ही व्यतीत हुआ, और संभवतः ऐसा ही होता रहेगा। माँ और पापा, दोनों की राय इस विषय में एक सामान रही।  स्नानघर से एक जोड़ी पहन कर बाहर निकलते तो हाथ में धुली हुई दूसरी जोड़ी रहती।  एक दिन में धुले हुए कपड़े सूख जाते, और cloth management का यह क्रम तब तक चलता जब तक कपड़े छीज नहीं जाते। सर्दी के दिनों में, आसानी से कपड़ों के न सूखने की वजह से, पोशाक की संख्या में 1-2 का इजाफा दर्ज़ होता। कई बार तो (ख़ास कर के पापा को) कपड़ो से ऐसा लगाव हो जाता कि हमें अपने कर कमलों से उन वस्त्रों को डस्टिंग के कपड़ों में बदलने का सुख प्राप्त होता। अपने घरवालों की पुरानी बनयान, कमीज, सूट, सलवार, मैक्सी और निक्क...

205 के भैया

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मटमैले रंग की सलवार कमीज पहने , छीजी सी चुन्नी ओढ़े , अधेड़ उम्र की मुस्कान कुल छे घर करती थी। गठा हुआ शरीर , टनकती आवाज़ और तेज़ चाल - मुस्कान दिल्ली की दबंग कामवालियों से अलग न थी। उसने बहुत पहले जान लिया था कि शहर के अमीर गिद्ध की भांति होते हैं - कमज़ोर को नोंच खाते हैं। वैसे तो काम उसने झाड़ू पोंछे से शुरू किया था , पर पैसे और हुनर बढ़ने के साथ उसने पेशे में भी तरक्की की थी। अब वो शर्तें साफ़ रखती थी - कपड़े मशीन में ही धोएगी। बर्तन गर्म पानी से ही साफ़ करेगी। खाने में एक सब्ज़ी और एक दाल से बढ़कर कुछ नहीं बनाएगी। महीने में दो छुट्टी करेगी। ये सब उसके अनुभव का निचोड़ था। सालों पहले , कई बार उसने कोशिश की थी कि बहुत अच्छा काम करके , किसी और के परिवार को अपना परिवार मान के , मैडम लोगों का दिल जीत ले। तब हाथ - पैर भी दबाये थे। सराहना में दो - चार शब्द हाथ लगे और दस - बारह पुरानी साड़ियां। तंगदिल लोगों को खुश करने की हज़ार कोशिशों के...