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भत तेरी की

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माँ मेरी , पता चला कि  माओं के लिए एक अलग सा दिन होने लगा है . Mothers’ Day. हंसी आई सुनकर कि जहाँ पूरा जीवन समर्पित करना भी कम पड़ जाए, वहां एक दिन के समर्पण से कैसे काम चला लेती है सभ्यता? खैर, जब मानवता की माँ, यानी धरती के लिए भी Earth Day होने लगा है, वहां इंसान क्या चीज़ है! अगर वसुंधरा को चेतना में सामने के लिए एक दिन का कार्यक्रम पर्याप्त है, तब माँ-बाप-भाई-बहन-पति-पत्नी-दोस्त-प्यार-इत्यादि...सबके दिवस मनाये जा सकते हैं. हमको पता है   कि  तुम भत तेरी की  करके विषयांतर करोगी. इस मामले में पापा से विचार विमर्श   कर पाना कितना intellectually stimulating है. वो इसके पीछे के socio-economic परिवेश को समझ बूझकर कितना अच्छा विश्लेषण करते हैं. बचपन में पापा dinner table पर philosophical discussion यूँ ही कर बैठते थे और मेरा मुँह खुला का खुला रह जाता था. रौंगटे खड़े हो जाते थे. विचारों की वह स्पष्टता. अध्ययन की वह गहराई. अभिव्यक्ति का वह ज़ोर. आँखों से टपकता जूनून. आवाज़ में गरजता विश्वास. पापा तो हीरो ठहरे. हम कैसे मन्त्र मुग्ध हो जाते थे. आज भी हो जाते हैं.