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गोल गुम्बद और गुफ्तगू

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  कॉलेज के दिनों की तरह दोनों गोल गुम्बद के सामने बेंच पर बैठे थे। जब भी मिलते , यहीं मिलते। एक तरफ मेथोडिस्ट चर्च और दूसरी तरफ मुग़लई गुम्बद उन्हें अलग अलग टाइम ज़ोन में एक साथ होने का आभास देता । दोनों दिल्ली वासी न होकर भी दिल्ली में ही पले बढ़े थे। इस शहर में इतिहास छितराया हुआ है , वो कहती। बस क्रम जानने की देर है , कहानी आप ही बन जाएगी। बरसों बाद वापस उसी गुलमोहर के नीचे बैठने में एक अजीब सा सुकून है , नहीं ? वो गुलमोहर के आधे पीले आधे हरे पत्तों में जाने क्या ढूंढती हुई बोली। सुकून तुझसे फिर से मिलने में है यू फूल , उसने उसका सर थपथपाते हुए बोला। जैसे वो कोई बच्ची हो। पूरी दुनिया में एक यही लड़की है जिसने मुझे ये सिखाया है कि मैं प्यार कैसे करता हूँ , उसने मन ही मन सोचा। बच्ची हंसी। आँखों की क्रो लाइन्स उभर आईं। दिल्ली के जाड़ों में उसका उज्जवल चेहरा और ठंढ से लाल पड़े गाल जैसे और बेबाक हो उठे थे। कुछ ही बरस मे...

तुम तक

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ट्रैफिक की आपाधापी. गाड़ियों की बेइंतहा समंदर सी भीड़. स्टीयरिंग पर बेचैन होती मैं, इधर उधर कहीं से भी रस्ता बनाती मैं, घड़ी में सेकंड की सुई को कोसती हुई नज़रों से धिक्कारती मैं. यूँ कहें, हर शाम ऑफिस से घर आती हुई, तुमसे फिर मिल जाने के लिए, एक बार फिर, बेताब बेकल मैं. ट्रैफिक की ऊब से लेकर बाहों में खो जाने का सुकून - ये सफर तुम से, तुम तक. ………………………………………………………………………………………… कानों में शहनाई का स्वर. घर भर में पूजा की सी खुशबू. केले-अगरबत्ती-रोली-धूप से सराबोर सुगन्धित हवा. दिसंबर की ठंढ और शादी के मूड से रूमानी होती हवा. बंद दरवाजों के पीछे बल्ब की पीली रौशनी में संवरती मैं. दरवाज़े के दूसरी ओर माथा मलते तुम, जल्दी करने की गुहार लगाते तुम. जल्दी कहीं जाने की नहीं. जल्दी मुझे देखने की. वो भी तुम्हारी दी हुई साड़ी में. नारंगी साड़ी, काला ब्लाउज. न के बराबर मेकअप. खुले बाल. बड़ी बिंदी. कम से कम ज़ेवर. तुम्हारी पसंद में ढलती, खुद से और करीब महसूस करती, तैयार होती मैं. चिटखनी खोलते ही मुझे सर से पैर तक, अधीर आँखों से पीते हुए तुम. स्तब्ध सन्नाटे में रोम-रोम से झर-झर प्रे...

तुम्हारा ऐसा होना

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तुम्हारा चेहरा नीचे करके एकाग्र ध्यान से सामने वाले को देखना तुम्हारा बातों को वैसे सुनना जैसे छोटे बच्चे का माँ को तुम्हारा खड़े होकर अंगड़ाई लेना तुम्हारा औरों का आभास इतना बारीक होना तुम्हारा माथे पर बल न आने देना तुम्हारा आवाज़ को कर्कश न होने देना तुम्हारा हमेशा न तैयार होकर भी तैयार रहना तुम्हारा हमेशा सब कुछ जानना और कुछ न तौलना तुम्हारा चलते फिरते किसी भी शीशे में बाल सेट करना तुम्हारा गंभीर मतभेदों को भी हँसते-खेलते झेल जाना संगीत सुनते ही तुम्हारे सिर का सुर में हलके-हलके नाचना तुम्हारी बातों का कानों पर वैसे बीतना जैसे बारिश की बूंदों का होठों पर तुम्हारा अक्सर हंसना और हंसी बिखेरना तुम ही कहो, तुम्हारा ऐसा होना अगर खुदाई का गवाह नहीं, तो और क्या है?

भत तेरी की

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माँ मेरी , पता चला कि  माओं के लिए एक अलग सा दिन होने लगा है . Mothers’ Day. हंसी आई सुनकर कि जहाँ पूरा जीवन समर्पित करना भी कम पड़ जाए, वहां एक दिन के समर्पण से कैसे काम चला लेती है सभ्यता? खैर, जब मानवता की माँ, यानी धरती के लिए भी Earth Day होने लगा है, वहां इंसान क्या चीज़ है! अगर वसुंधरा को चेतना में सामने के लिए एक दिन का कार्यक्रम पर्याप्त है, तब माँ-बाप-भाई-बहन-पति-पत्नी-दोस्त-प्यार-इत्यादि...सबके दिवस मनाये जा सकते हैं. हमको पता है   कि  तुम भत तेरी की  करके विषयांतर करोगी. इस मामले में पापा से विचार विमर्श   कर पाना कितना intellectually stimulating है. वो इसके पीछे के socio-economic परिवेश को समझ बूझकर कितना अच्छा विश्लेषण करते हैं. बचपन में पापा dinner table पर philosophical discussion यूँ ही कर बैठते थे और मेरा मुँह खुला का खुला रह जाता था. रौंगटे खड़े हो जाते थे. विचारों की वह स्पष्टता. अध्ययन की वह गहराई. अभिव्यक्ति का वह ज़ोर. आँखों से टपकता जूनून. आवाज़ में गरजता विश्वास. पापा तो हीरो ठहरे. हम कैसे मन्त्र मुग्ध हो जाते थ...