तुम तक





ट्रैफिक की आपाधापी. गाड़ियों की बेइंतहा समंदर सी भीड़. स्टीयरिंग पर बेचैन होती मैं, इधर उधर कहीं से भी रस्ता बनाती मैं, घड़ी में सेकंड की सुई को कोसती हुई नज़रों से धिक्कारती मैं. यूँ कहें, हर शाम ऑफिस से घर आती हुई, तुमसे फिर मिल जाने के लिए, एक बार फिर, बेताब बेकल मैं.

ट्रैफिक की ऊब से लेकर बाहों में खो जाने का सुकून - ये सफर तुम से, तुम तक.
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कानों में शहनाई का स्वर. घर भर में पूजा की सी खुशबू. केले-अगरबत्ती-रोली-धूप से सराबोर सुगन्धित हवा. दिसंबर की ठंढ और शादी के मूड से रूमानी होती हवा. बंद दरवाजों के पीछे बल्ब की पीली रौशनी में संवरती मैं. दरवाज़े के दूसरी ओर माथा मलते तुम, जल्दी करने की गुहार लगाते तुम. जल्दी कहीं जाने की नहीं. जल्दी मुझे देखने की. वो भी तुम्हारी दी हुई साड़ी में. नारंगी साड़ी, काला ब्लाउज. न के बराबर मेकअप. खुले बाल. बड़ी बिंदी. कम से कम ज़ेवर. तुम्हारी पसंद में ढलती, खुद से और करीब महसूस करती, तैयार होती मैं.

चिटखनी खोलते ही मुझे सर से पैर तक, अधीर आँखों से पीते हुए तुम. स्तब्ध सन्नाटे में रोम-रोम से झर-झर प्रेम बहाते तुम. गहरी सांस भरकर, एक गीली सी मुस्कान पहने, "सिंदूर लगा दूँ?" पूछते तुम.

मेरा हर श्रृंगार, भीतर से बाहर तक, तुम से, तुम तक.
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ऑफिस में काम का पहाड़. काम से बढ़कर एक से एक अहम् की लड़ाई. नितांत निर्दयी होता माहौल. बेमतलब के डिमांड. बेतुकी सी बातें. बेहाल से सब लोग. इन सब के बीच जूझती, खिन्न होती मैं. धैर्य अधैर्य के बीच कहीं झुंझलाती मैं. "तुम जब भी, जहाँ भी, जितना भी अच्छा करोगी, मेरा सीना और चौड़ा होता जाएगा," अन्तःमन  में स्वतः गूंजते तुम्हारे शब्द. साथ याद आता तुम्हारा मुझपर अडिग विश्वास. प्यार लुटाती सराहना भरी तुम्हारी आँखें.

चेतना के किसी स्पष्ट छोर को पकड़कर फिर हिम्मत जुटाती मैं. जो कुछ 'अच्छा' बन पड़ता, करती चलती मैं. मुश्किल परिस्थितयों में भी डट कर लम्बी सांस भरती मैं. आँखों में पानी, जुबां में लहज़ा, दिल में नरमी...तुम सी बनने का प्रयास करती रहती मैं.

मेरा होना, मेरा चाहना, मेरा बीतना, मेरा जीतना - परिभाषित होता - तुम से, तुम तक.
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